न्यायिक नियुक्ति में पारदर्शिता जरूरी है, प्रभु चावला का आलेख
Judicial Appointments : न्यायशास्त्र अगर रोमनों की देन है, तो ‘स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व’ का नारा देने वाले फ्रांसीसी न्याय देने का दावा करते हैं. 18वीं सदी के फ्रेंच दार्शनिक मोंटेस्क्यू ने, जिन्हें लोकतंत्र में पारदर्शिता के सिद्धांत का जनक कहा जाता है, ‘द स्पिरिट ऑफ लॉ’ में लिखा, ‘ताकत के दुरुपयोग को रोकने के लिए जरूरी है कि ताकत पर नजर रखी जाये….लोकतंत्र की शक्ति सिर्फ तभी भ्रष्ट नहीं होती, जब समानता की भावना खत्म हो जाती है, बल्कि तब भी नष्ट होती है, जब अत्यधिक समानता की भावना सामने आती है.’ लोकतंत्र को भाई-भतीजावाद, तानाशाही और विकृति से बचाने के लिए मोंटेस्क्यू ने ही चर्च और राज्य की शक्तियों के पृथक्करण का तर्क दिया था.
उनके सिद्धांत आज भी अमिट हैं : विधायिका कानून बनाती है, कार्यपालिका उसे लागू करती है और न्यायपालिका उसकी व्याख्या करती है. मोंटेस्क्यू का जोर इस बात पर था कि ये तीनों अंग एक दूसरे से पृथक रहें, पर एक दूसरे पर निर्भर भी हों. भारतीय लोकतंत्र के ये तीन अंग स्वतंत्र हैं और एक दूसरे पर निर्भर भी. लेकिन दिल्ली हाई कोर्ट के जज यशवंत वर्मा के आवास से नकदी की कथित बरामदगी की घिनौनी कथा सामने आने के बाद से कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के बीच का अघोषित शीतयुद्ध सतह पर आ गया है. इस खुलासे से न्यायपालिका में भूचाल आ गया, तो सत्ता प्रतिष्ठान इसे न्यायपालिका पर अंकुश लगाने के अवसर के रूप में देख रहा है. वह कॉलेजियम प्रणाली के तहत जजों की नियुक्ति को इस स्थिति के लिए जिम्मेदार ठहरा रहा है.
सत्ता प्रतिष्ठान और न्यायपालिका के बीच के विवाद........
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